श्रीवैष्णव – बालपाठ – अष्टदिग्गज शिष्यगण एवं अन्य

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

बालपाठ

पिछ्ला

दादी : स्वागत बच्चो , आशा करती हुई की आप सबको पिछले समय की चर्चा याद होगी |

बच्चे (एक साथ ) : नमस्ते दादी जी, हमें सब याद है , और हम जहाँ आपसे अष्टदिग्गज शिष्यगण के बारे में जानना चाहते है |

दादी : अच्छा लगा, चलिए हम सब चर्चा शुरू करते है |

पराशर : दादी, अष्टदिग्गज का मतलब शिष्यगण| दादी, क्या में ठीक कह रही हूँ ?

दादी : पराशर, आप ठीक कह रहे हो | मणवाळ मामुनि स्वामीजी के अष्टदिग्गज 8 प्राथमिक शिष्य थे | पोन्नडिक्काल् जीयर्/ वानान्द्रीयोगी स्वामीजी (श्री तोताद्रि मत् प्रथम स्वामि), कोयिल् कन्दाडै अण्णन्, प्रतिवादि भयंकरम अण्णन्, पत्तन्गि परवस्तु पट्टर्पिरान् जीयर्, एऱुम्बि अप्पा, अप्पिळ्ळै, अप्पिळ्ळार्, अप्पन् तिरुवेंकट रामानुज एम्बार् जीयर् | मणवाळ मामुनि (के समय / उनके बाद) जो महा श्रीवैष्णवाचार्य हुए है, उनके बाद हमारे संप्रदाय की वृद्धि में सबसे प्रभावशाली थे।

चलिए हम आगे बढ़ते हुए श्री पोन्नडिक्काल जीयर के जीवन की चर्चा करेंगे जो अपने आचार्य मनवाल मामुनिगल के प्राण सुकृत थे।

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दादी : पोन्नडिक्काल जीयर वानमामलै मे पैदा हुए और बचपन मे उनके माता–पिता ने उनका नाम अळगिय वरदर रखा ।

पराशर : दादी जी , उनको पोन्नडिक्काल जीयर क्यों कहा जाता था |

दादी : पोन्नडिक्काल  का मतलब है वो जिसने मामुनिगळ के शिष्य सम्पत की स्थापना की हो| | कहते हैं कि पोन्नडिक्काल जीयर के उत्कृष्ठ स्वभाव से सारे आचार्य उन्हें मणवाळमामुनि का उपागम (पुरुषाकार) समझते हैं और उन्ही के उपागम्यता से वे सारे, मणवाळमामुनि को पहुँच पाते थे । 

मामुनिगळ स्वामीजी ने अष्टदिग्गज शिष्यगण के लिए पोन्नडिक्काल जीयर स्वामीजी को चुना | मामुनिगळ स्वामीजी ने पोन्नडिक्काल जीयर जी को आदेश दिया की दैवनायकन एम्पेरुमान (वानमामलै भगवान) श्री मणवाळमामुनि को श्री सेनैमुदलियार (विष्वक्सेन) के द्वारा एक संदेश भेजते हैं जिसमे कहते हैं कि वानामामलै दिव्यदेश मे पोन्नडिक्काल जीयर की सेवा कि ज़रूरत है । उसके अनन्तर मणवाळमामुनि उन्हें आदेश देते हैं कि वे तुरन्त वानमामलै जाए और वहाँ अपना कैंकर्य करें ।

व्यास : दादी , पोन्नडिक्कालजीयर स्वामीजी दैवनायकन एम्पेरुमान (वानमामलै भगवान) जी के ससुर थे , क्या में सही कह रहा हूँ ?

दादी : हाँ व्यास , बिलकुल सही | पोन्नडिक्काल जीयर उस समय वानमामलै मे श्रीवरमंगै नाचियार का उत्सव विग्रह नही था और उसी से परेशान थे पोन्नडिक्काल जीयर । एक बार भगवान (दैवनायकन) उनके स्वप्न मे आकर कहते हैं कि वे तिरुमलै से नाचियार का उत्सव विग्रह लाना चाहिए। भगवान की इच्छा पूरी करने हेतु वे तिरुमलै जाते हैं। वहाँ पहुँचने के बाद उन्हें स्वप्न मे श्री नाचियार कहती है कि उन्हें वानमामलै तुरन्त ले जाए और उन्की शादी दैवपेरुमाळ से करवाई जाए । पोन्नडिक्काल जीयर नाचियार के पिता स्वरूप बनकर उन्का कन्यादान दैवनायकन पेरुमाळ भगवान को करते हैं। दैवनायनक पेरुमाल कहते हैं कि जैसे भगवान् पेरियपेरुमाळ के ससुरजी पेरिआळ्वार हुए वैसे ही पोन्नडिक्काल जीयर उनके ससुरजी हुए |

शिष्यों को कई सालों तक अपने महत्वपूर्ण निर्देशों की सूचना व्यक्त करने के पश्चात वह अपने आचार्य का ध्यान करते हुए अपने शरीर (चरम तिरुमेणि) का त्याग करते हैं और इस प्रकार उनको परमपदम की प्राप्ति होती है । वह अपने अगले उत्तराधिकारि (अगले जीयर वानमामलै मठ) को नियुक्त करते हैं और यह आचार्य परंपरा आज भी ज़ारी है ।

चलिये अब हम श्री पोन्नडिक्कालजीयर के चरणकमलों का आश्रय लेते हुए उनसे प्रार्थना करें कि हम सभी भक्तों में उनके जैसा आसक्ति, हमारे वर्तमानाऽचार्य पूर्वाचार्य और श्री भगवान (एम्पेरुमान) में हो ।

दादी : हमारी अगली चर्चा कोयिल अण्णन स्वामीजी के बारे में होगी | वह अष्टदिग्गज शिष्यों में सबसे प्रिय शिष्ये थे | कोइल अण्णन के जीवन में एक दिलचस्प घटना घटी, जो उन्हें मामुनिगल की शरण में ले गई।

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पराशर : दादी, वह क्या घटना थी ??

दादी : आपकी जिज्ञासा प्रशंसनीय है पराशर | मुदलियाण्डान्/ दाशरथि स्वामीजी के महान पारिवारिक वंश में जन्मे, वह मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी का आश्रय नहीं लेना चाहते थे। एक घटना ने उन्हें वापस मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के चरण कमलो के संपर्क में आये । | आप सभी श्री रामानुज स्वामीजी को जानते है जिन्होंने कोयिल अण्णन जी को मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी का शिष्य बनने का आदेश दिया | श्री रामानुज स्वामीजी ने कोयिल अण्णन का मार्गदर्शन किया और उनको आदेश दिया की आप अपना मुदलियाण्डान्/ दाशरथि स्वामीजी के साथ सम्बन्ध का सही इस्तेमाल करे |

एम्पेरुमानार जी ने कहा “मैं आदि शेष हूँ और पुनः मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के रूप में अवतार लिया है | आप और आपके रिश्तेदार मणवाल मामुनिगल/ श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के शिष्य बने और अपना उत्थान करें ”। बच्चों, पूरी घटना उनके सपने में हुई थी। स्वप्न टूटता है और स्वप्न से जागते है और पूरी तरह से हैरान हो जाते है । वह अपने भाइयों को बड़ी भावनाओं के साथ घटनाओं के बारे में व्याख्या करते है।

अण्णन स्वामीजी कन्दाडै वंश के आचार्यो के साथ मामुनिगळ स्वामीजी के मठ में प्रवेश करते है | मामुनिगळ स्वामीजी ने पोन्नडिक्काल जीयर स्वामी जी को सभी के लिए पंच संस्कार करने के लिए आवश्यक पहलुओं को तैयार करने का निर्देश दिया।

इसीलिए बच्चो , इस प्रकार हमने कोयिल कन्दाडै अण्णन् के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनी स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो।

आगे मैं मोर मुन्नार अय्यर (पत्तन्गि परवस्तु पट्टरपिरान् जीयर) के बारे में बताऊंगा। वह मामुनिगल के अष्टदिग्गज शिष्यों में से एक थे । वह सदैव मामुनिगळ स्वामीजी के साथ अलग हुए बिना ही उनके साथ रहे, जैसे गोविंदाचार्य स्वामीजी रामानुज स्वामीजी के साथ रहते थे ।

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वेदवल्ली : दादी जी , उनको मोर मुन्नार अय्यर के नाम से क्यों जाना जाता था ?

दादी : बहुत सही लगता है ना | प्रतिदिन, उन्होंने मामुनिगल के शेष प्रसाद को (बचा हुआ ) को ग्रहण करते थे । अपने पुर्वाश्रम में 30 साल, उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का शेष प्रसाद ही ग्रहण किया। वे “मोर मुन्नार अय्यर” (अत्यंत सम्मानीय जिन्होंने पहले दद्ध्योदन ग्रहण किया) के नाम से प्रसिद्ध हुए। पारंपरिक भोजन में पहले दाल-चावल, सब्जियां आदि पाई जाती है। अंत में दद्ध्योदन के साथ समाप्त किया जाता है। पट्टरपिरान् जीयर, प्रसाद उसी केले के पत्तल पर पाते थे, जिसमें श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने प्रसाद ग्रहण किया था। श्री वरवरमुनि स्वामीजी दद्ध्योदन के साथ प्रसाद समाप्त करते थे और क्यूंकि गोविन्द दासरप्पन स्वाद को बदले बिना ही प्रसाद पाना चाहते थे (दद्ध्योदन से दाल तक), वे प्रतिदिन दद्ध्योदन से प्रारंभ करते थे। इस प्रकार वे “मोर मुन्नार अय्यर” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने मामुनिगल स्वामीजी से शास्त्रों के सभी सार को सीखा और सतत उनकी सेवा की। मामुनिगल स्वामीजी परमपद प्रप्त होने के बाद, पट्टर्पिरान जीयर तिरुमला मे ही रह गय और उधर अनेक जीवात्माओ का उद्दार किया। अधिक आचार्य निष्ठा होने के कारण वे अंतिमोपाय निष्ठा नामक ग्रंथ भि लिखा। यह ग्रंथ में अपने आचर्य परंपरा की स्तुती और अपने पूर्वाचार्य कैसे उनके आचार्यो पर पूर्ण निर्भर रहते थे उसका वर्णन किया गया है। वे बडे विध्वन थे और मामुनिगल स्वामीजी के प्रिय शिश्य भि थे।

दादी : बच्चो , अब हम आपको एरुम्बी अप्पा स्वामीजी के बारे में बताएँगे | एरुम्बी अप्पा, श्री वरवरमुनि स्वामीजी के अष्ठ दिग्गजों में एक हैं (आठ प्रमुख शिष्य जिन्हें संप्रदाय के संरक्षण के लिए स्थापित किया)। उनका वास्तविक नाम देवराजन है | अपने गाँव में रहते हुए और धर्मानुसार कार्य करते हुए, एक बार एरुम्बी अप्पा ने श्री वरवरमुनि स्वामीजी के बारे में सुना और उनके प्रति आकर्षित हुए। श्री वरवरमुनि स्वामीजी के समय को हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा नल्लदिक्काल (सुनहरा समय) कहा जाता है। एरुम्बी अप्पा ने कुछ समय के लिए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के साथ रहकर, सभी रहस्य ग्रंथों कि शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने पैतृक गाँव लौटकर, वहां अपना कैंकर्य जारी रखा।

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वे सदा अपने आचार्य का ध्यान किया करते थे और पूर्व और उत्तर दिनचर्या का संकलन कर (जिनमें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की दैनिक गतिविधियों का चित्रण किया गया था) एक श्रीवैष्णव द्वारा उन्हें श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को समर्पित किया। एरुम्बी अप्पा की निष्ठा देखकर श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अत्यंत प्रसन्न हुए और उनकी बहुत प्रशंसा की। वे एरुम्बी अप्पा को उनसे भेंट करने के लिए आमंत्रित करते हैं। एरुम्बी अप्पा कुछ समय अपने आचार्य के साथ रहते हैं और फिर नम्पेरुमाल के समक्ष श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के भागवत विषय कालक्षेप में भाग लेते हैं। तद्पश्चाद वे पुनः अपने गाँव लौट जाते हैं।

व्यास : दादीजी, जैसे पट्टर्पिरान जीयर, पोन्नडिक्काल जीयर, एरुम्बी अप्पा स्वामीजी भी अपने आचार्य के प्रति बहुत संलग्न थे | क्या यह ऐसा नहीं था दादी जी ?

दादी : सही व्यास | एरुम्बी अप्पा की महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है “ विलक्षण मोक्ष अधिकारी निर्णय”। यह एरुम्बी अप्पा और उनके शिष्यों जैसे सेनापति आलवान आदि के बीच हुए वार्तालाप का संकलन है।

वेदवल्ली : दादी जी , “ विलक्षण मोक्ष अधिकारी निर्णय” क्या है ?

दादी : इस सुंदर ग्रंथ में एरुम्बी अप्पा, अत्यंत दक्षता से आळवार/ आचार्यों की श्रीसूक्तियों के मिथ्याबोध से उत्पन्न होने वाले संदेह को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने पूर्वाचार्यों की श्रीसूक्तियों के आधार पर संसार में वैराग्य विकसित करने और पूर्वाचार्यों के ज्ञान और अनुष्ठान के प्रति अनुराग का महत्व बताया और हमारे द्वारा उसे जीवन में अपनाने के लिए जोर दिया है (उसके बिना यह मात्र सैद्धांतिक ज्ञान होता)।

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गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पश्चाद, अण्णा ने तिरुवेंकटमुडैयाँ (भगवान वेंकटेश्वर) की सेवा के लिए तिरुमला प्रस्थान किया। अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) का वैभव सुनने के बाद अण्णा स्वामीजी ने निर्णय लिया की वह माणवळ मामुनिगळ स्वामीजी के शिष्या बनने का फैसला किया | श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के आश्रित होने के लिए सकुटुंब श्रीरंगम की ओर प्रस्थान करते हैं। वह श्रीरंगम में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के मठ में जाते है | श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कालक्षेप कर रहे होते है और अण्णा स्वामीजी ने कालक्षेप सुना और उन्होंने शास्त्रों के विभिन्न क्षेत्रों में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का वैभव जाना | उन्होंने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की शरण ली और उनके शिष्य बन गए |

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कांचीपुरम, चोलसिंहपुरम, एरुम्बी आदि के जरिए तिरुमला की यात्रा पर प्रस्थान करते हैं। अण्णा भी यात्रा में उनके साथ ही जाते हैं। तिरुमला में तिरुवेंकटमुडैयाँ के लिए सुप्रभात के अभाव को देखते हुए, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अण्णा को भगवान के लिए सुप्रभात की रचना करने का निर्देश देते हैं। अण्णा, कृतज्ञता से अपने आचार्य के दिव्य विग्रह का ध्यान करते हुए, श्री वेंकटेश सुप्रभातम, स्तोत्रं, प्रपत्ति और मंगल श्लोकों की रचना करते हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी, अण्णा की रचनाओं से बहुत प्रसन्न होते हैं और तिरुमला में भगवान की प्रसन्नता के लिए प्रतिदिन उनका पाठ करने का निर्देश देते हैं।

दादी : बच्चो, हमारी अंतिम चर्चा अप्पिळ्ळै, अप्पिळ्ळार् स्वामीजी के बारे में होगी | उनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। वे अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) के प्रिय शिष्य थे और अष्ट दिग्गज में से एक थे । वे दोनों महान विद्धवान थे जिन्होंने भारत के उत्तरी भाग में कई विद्वानों को जीत लिया |

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यद्यपि उन्होंने अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) के बारे में सुना, लेकिन उनके मन में उनके प्रति बहुत लगाव नहीं था। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) की महिमा के बारे में पता चला और यहां तक कि सुना कि कई महान हस्तियों जैसे कि कोयिल् कन्दाडै अण्णन्, एऱुम्बि अप्पा ने अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) की शरण ली ।

वेदवल्ली : दादी जी, वे कैसे अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) शिष्य बने ?

दादी : हाँ वेदवल्ली, अळगिय मनवाळ मामुनिगल (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी) ने ही एरुम्बि अप्पा जी को सूचित किया था आप आचार्य सम्बन्ध के लिए तैयार है | पोन्नडिक्काल् जीयर्/ वानान्द्रीयोगी स्वामीजी (श्री तोताद्रि मत् प्रथम स्वामि) जी ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से कहा की एरुम्बी अप्पा जी के साथ चर्चा करके वह धन्य है और एरुम्बी अप्पा जी आपका शिष्य बनने के लिए सभी योग्यताएं हैं | वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को बताते हैं कि वे आचार्य संबंध के लिए तत्पर हैं। उन दोनों ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से पूछा की आप हमें शिष्य रूप में स्वीकार करे और हमें आशीर्वाद प्रदान करें | इस तरह श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अप्पिळ्ळै एवं अप्पिळ्ळार् जी का पञ्च संस्कार संपन्न किये |

अप्पिळ्ळार को जीयर मठ के दैनिक गतिविधियों जैसे तदियाराधन आदि के देखरेख का उत्तरदायित्व दिया गया था। जैसे किदम्बी अच्चान ने श्रीरामानुज स्वामीजी की सेवा के लिए मठ की देखरेख का उत्तरदायित्व लिया था, अप्पिळ्ळार ने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की सेवा की।

श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य आदेश पर अप्पिळ्ळै तिरुवंतादी पर व्याख्यान की रचना करते हैं और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को उनके बहुत से दिव्य प्रबंध सम्बंधित कैंकर्य में सहायता करते हैं।

इस तरह हमने अप्पिळ्ळै के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो।

इस तरह हमने अप्पिळ्ळै के गौरवशाली जीवन की कुछ झलक देखी। वे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के बहुत प्रिय थे। हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अंतिम दिनों में, अप्पिळ्ळार और जीयर नारायण (श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के पुर्वाश्रम से उनके पौत्र) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी से प्रार्थना करते हैं और उनसे विनती करते हैं कि वे उनकी दैनिक आराधना के लिए श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के अर्चा विग्रह प्रदान करने की कृपा करे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उन्हें एक सोम्बू (पात्र) प्रदान करते हैं जो वे नित्य उपयोग किया करते थे और उन्होंने उसके उपयोग से दो विग्रहों का निर्माण किया और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी का एक-एक विग्रह अपने दैनिक पूजा के लिए रख लिया।

हम सब उनके श्री चरण कमलो में प्रार्थना करते हैं कि हम दासों को भी उनकी अंश मात्र आचार्य अभिमान की प्राप्ति हो।

बच्चो अब तक हमने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी और उनके अष्ट दिग्गज शिष्यों के वैभव के बारे में चर्चा की |

पराशर : दादीजी हमने आज बहुत कुछ सीखा |

दादी : प्रिय बच्चो, अब में आपको कुछ महत्वपूर्ण बताने जा रही हूँ, उसे ध्यान से सुने |

मामुनिगल स्वामीजी के बाद, कई महान आचार्य हर शहर और गांव में भक्तों को आशीर्वाद देते रहे। आचार्यगण सभी दिव्या देशों, अभिमान स्थलों, आळ्वार / आचार्य अवतार स्थलों और दूसरे क्षेत्रो में निवास किये और सभी वैष्णव जन के साथ ज्ञान साझा किया और सभी में भक्ति का पोषण किया।

तिरुमलिसै अण्णावप्पंगार एवं श्रीपेरुम्बुदुर के पहले एम्बार जीयर हाल के अतीत (200 साल पहले) से थे और हमारे संप्रदाय के लिए उनके गहन अनुदानों और कैंकर्यो के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया।

जो भी ज्ञान मैंने आपके साथ साझा किया है, वह आचार्यों परम्परा के माध्यम से आया है। हमें हमेशा उनका कृतज्ञ रहना होगा। आशा है कि आप सभी का समय अच्छा होगा। हमारे मन, इंद्रियों और शरीर और ऐसे आचार्यों, आळ्वार और एम्पेरुमान के लिए कैंकर्य में लगे रहना चाहिए।

ठीक है, अब अंधेरा हो गया है। आइए हम आचार्यों के बारे में सोचते हैं और आज अपना सत्र पूरा करते हैं।

बच्चे : धन्यवाद दादीजी |

अडियेन् रोमेश चंदर रामानुजन दासन

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